08 मई 2005

परिचय

narmada prasad malviya

01 फरवरी 1934 को जन्में श्री नर्मदा प्रसाद मालवीय म.प्र. के शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त हुए हैं। अध्ययन और लेखन में आपकी अभिरुचि है। आपने हिन्दी साहित्य की कविता, कहानी, लेख, समीक्षा एवं हाइकु विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में आपकी रचनाओं का प्रकाशन होता रहता है। स्थानीय साहित्यिक कार्यक्रमों में आपकी सक्रिय सहभागिता रहती है।

प्रकाशित कविता संग्रह-
0
जो दिल खोजा आपना
0 अँधरों को आँखें मिलीं

सम्पर्क सूत्र-

शिव कालोनी
आई. टी. आई. रोड होशंगाबाद म.प्र.
दूरभाष— 0774- 257322

हाइकु

खिला महका
और बिखर गया
प्यारा गुलाब ।

***

-नर्मदा प्रसाद मालवीय

कविता

अराजकता

मैंने सुना है
मंदिर की चौखट पर
श्रद्धा ने आत्महत्या कर ली
मक्ति को डस लिया
चंदन में लिपटे विषधर ने
भावना का खून हो गया
संसद के फ्लोर पर
रोशनी कैद है
कुबेरों के घर
ईमान की भ्रूण हत्या हो गई
शांति बाजार में गुम हो गई
आशा अंतरिक्ष में जा बसी है
करुणा दफन हो गई श्मशान में
लज्जा रो–रो कर चट्टान बन गई है
ज्ञान बन गया व्यापार
बिक रहा है गलियों में
अनुभव अंतिम साँसें गिन रहा है–
वृद्ध आश्रमों में
बुद्धि अभी खिलौने खेल रही है
अहंकार ऊँचा सिर किये खड़ा है
आस्था को गुण्डों ने अगुआ किया है
ईर्ष्या श्रंगार कर अपनी बेटी
निन्दा के घर जूस पी रही है
पानी की टंकी में घुला है भ्रष्टाचार
रिश्वत दफ्तर में पूजा कर रही है
राजनीति ने घर्म को घर दबोचा है
आश्वासन ओठों का श्रंगार बना है
सत्य‚ अहिंसा‚ त्याग‚ पुस्तक के विषय है
सहिष्णुता की नाक पर मिर्ची मसल गई है
ईश्वर को खरीदने किसने कितना दान किया
किसने कितना चंदा दिया
कहते हैं कि ऊपर वाला माप रहा है
आतंक झोपड़ों में आग लगा
बैठा ताप रहा है
कलेजा ठंडा कर रहा है
***
- नर्मदा प्रसाद मालवीय

कविताएँ

जीवन

अस्तित्व ने
शून्य आकाश में
लिखा है जीवन
पृष्ठों मे लिखा है जीवन
पानी पर तैरती काई उसकी भूमिका है
फिर पेड–पौधे‚ जीव–जन्तु
पशु–पक्षी एक लम्बा कथानक
उपसंहार में है आदमी
अधिक शब्दों में है उपसंहार
उपसंहार की अंतिम पंक्ति में
अंतिम शब्द है– भगवान.
***



***
नृत्य नहीं उठते पाँवों से
गीत नहीं आते कंठो से
गर बजते हों घुँघरू अंतर में
तो मित्रों
यही जिन्दगी भगवान हो गई **



***
जब तक
सिद्धि के लिये दौड़ते रहे
सिद्धार्थ ही रहे
बैठ गये‚ बुद्ध हो गये !
***


-नर्मदा प्रसाद मालवीय

कविता

अवतार

धरा जब डूब जाती है
तब वही शेष बचता है
छेड़ता है राग
सृजन का गीत रचता है
फिर वही संगीत
धरा का ईमान बनता है
अपनी ही माया के हाथों
वही भगवान फिर इंसान बनता है।
***

- नर्मदा प्रसाद मालवीय

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